आम तौर पर झारखंड की महिलाओं को चूल्हा-चौके से जोड़कर देखा जाता है, लेकिन अब राज्य की 6500 से ज्यादा महिलाएं हाथों में ‘सुई-सिरिंज’ थामे ना केवल खुद की गरीबी के मर्ज का इलाज कर रही हैं, बल्कि उन्होंने राज्य के पशुधन को स्वस्थ रखने का भी बीड़ा उठा लिया है। कल तक जिन महिलाओं को गांव के लोग भी नहीं पहचानते थे, वे आज ‘डॉक्टर दीदी’ बन फर्राटे से स्कूटी चला रही हैं।
पूर्वी सिंहभूम के मनोहरपुर की रहने वाली अंजलि एक्का अपने गांव की रहने वाली पशु-सखी फरदीना एक्का की ओर इशारा करते हुए कहती हैं, “अब हमें कोई चिंता नहीं रहती। बकरी को जरा-सा कुछ हुआ तो इनको बुला लेते हैं। जब गांव में ही डॉक्टर हो तो फिर किस बात की चिंता।”
वह आगे बताती हैं, “पहले तो हमारे यहां बीमार होकर मर जाने के डर से लोग ज्यादा बकरी नहीं पालते थे, लेकिन अब बीमार होने से पहले ही इसका इलाज ये कर देती हैं।”
आदिवासी बहुल जंगलों और पहाड़ियों की धरती झारखंड के लगभग प्रत्येक घर में मुर्गियां और बकरियां पाली जाती हैं। लेकिन इन पशुओं में होने वाली बीमारियां उन्हें कई बार अंदर तक हिला देती थीं, देखते ही देखते पूरे गांव की बकरियां-मुर्गियां मर जाया करती थीं। लेकिन अब स्थितियां बदली हैं। अब बकरियां और मुर्गियां इनके लिए आय का स्रोत बन गई हैं।
झारखंड स्टेट लाइवलीहुड प्रमोशन सोसाइटी ने स्वयंसहायता समूहों से जुड़ीं महिलाओं को पशु चिकित्सा का प्रशिक्षण देकर उन्हें इलाज का जिम्मा सौंपा। राज्य में करीब 6,500 पशु-सखियां 60,000 से ज्यादा पशुपालकों की बकरियों की देखरेख का जिम्मा उठा रही हैं। प्रखंड स्तरीय प्रशिक्षण के बाद ये महिलाएं बकरियों में पीपीआर, खुरपका, मुंहपका जैसी बीमारियों का इलाज करती हैं। साथ ही उन्हें अच्छे पोषण, रखरखाव बेहतर पशुपालन की सलाह देती हैं।
पशु-सखी फरदीना एक्का कहती हैं कि उनकी प्रति पशु फीस मात्र 10 रुपये है। एक पशु-सखी प्रतिदिन 18 से 20 पशुओं का इलाज आराम से कर पाती हैं। इस दौरान सुई, दवा में भी कुछ कमाई हो जाती है।
झारखंड स्थापना दिवस पर सम्मानित हुईं पशु-सखी बलमदीना तिर्की को झारखंड सरकार ने उनके सराहनीय कार्यो के लिए न केवल सम्मानित किया, बल्कि एक लाख रुपये का चेक भी दिया। पांचवीं कक्षा पास तिर्की के इस सम्मान के बाद अन्य महिलाएं भी इस पेशे की ओर आकर्षित हुई हैं।
पशु-सखियों से इलाज के कारण राज्य में बकरियों की मृत्युदर 30 फीसदी तक घट गई है। इस समय झारखंड में 6,500 से ज्यादा पशु-सखियां बकरियों और मुर्गियों का इलाज कर इनकी मृत्यु दर कम कर रही हैं। इनके आने से जो मृत्युदर पहले 35 फीसदी होती थी, वह घटकर केवल पांच फीसदी बची है। जो पशुपालक पहले पांच-सात बकरियां पालते थे, अब वही 15-20 बकरियां पालते हैं।
ग्रामीण विकास विभाग की ‘जोहार परियोजना’ के तहत इन सखी महिलाओं को अब कृषि के क्षेत्र से जोड़कर भी प्रशिक्षण दिया जा रहा है।
कार्यक्रम प्रबंधक कुमार विकास ने आईएएनएस को बताया कि इन महिलाओं को एग्रीकल्चर स्कील काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा ‘स्किलिंग ट्रेनिंग’ दी जा रही है। उन्होंने कहा कि अब तक 500 से ज्यादा महिलाओं को इसका प्रशिक्षण दिया जा चुका है।
उन्होंने बताया कि झारखंड में अधिकांश जंगली क्षेत्र होने की वजह से यहां 70 फीसदी से ज्यादा लोग बकरी पालन करते हैं, लेकिन बकरियों की सही देखरेख न होने की वजह से यहां 35 फीसदी बकरियां बीमारी की वजह से मर जाती थीं। बकरी और मुर्गियों की मृत्युदर झारखंड में बहुत बड़ी समस्या बन गई थी।
इन छोटे पशुओं के इलाज के लिए पशु चिकित्सक पहुंच नहीं पा रहे थे, ऐसे में झारखंड स्टेट लाइवलीवुड प्रमोशन सोसाइटी ने स्वयंसहायता समूहों से जुड़ी महिलाओं को पशु चिकित्सा का प्रशिक्षण देकर उन्हें इलाज का जिम्मा सौंपा है।
कुमार कहते हैं कि पशु-सखी बकरियों और मुर्गियों का टीकाकरण करती हैं और मिनाशक देती हैं। ये पशु-सखी हर पशु पालक के चारा, दाना और पानी के लिए स्टैंड बनवाती हैं। इसके आलावा महीने में एक बार दिया जाना वाला पौष्टक आहार भी तैयार करवाती हैं।
वे कहते हैं, “आज पशु-सखी न खुद की, बल्कि गांव की गरीबी मर्ज का इलाज ढूंढ रही हैं। कई पशु-सखी तो स्कूटी से कई क्षेत्रों तक अपनी पहुंच बनाकर और ज्यादा आर्थिक लाभ प्राप्त कर रही हैं।”